Antwort
|
Und
|
die
|
Sonne
|
versendet
|
glühenden
|
Brand,
|
Und
|
von
|
der
|
unendlichen
|
Mühe
|
Ermattet
|
sinken
|
die
|
Kniee
|
"O
|
hast
|
du
|
mich
|
gnädig
|
aus
|
Räubershand,
|
Aus
|
dem
|
Strom
|
mich
|
gerettet
|
ans
|
heilige
|
Land,
|
Und
|
soll
|
hier
|
verschmachtend
|
verderben,
|
Und
|
der
|
Freund
|
mir,
|
der
|
liebende,
|
sterben!"
|
Und
|
horch!
|
da
|
sprudelt
|
es
|
silberhell,
|
Ganz
|
nahe,
|
wie
|
rieselndes
|
Rauschen
|
Und
|
stille
|
hält
|
er
|
zu
|
lauschen,
|
Und
|
sieh,
|
aus
|
dem
|
Felsen,
|
geschwätzig,
|
|
Antwort
|
schnell,
|
Springt
|
murmelnd
|
hervor
|
ein
|
lebendiger
|
Quell,
|
Und
|
freudig
|
bückt
|
er
|
sich
|
nieder
|
Und
|
erfrischet
|
die
|
brennenden
|
Glieder.
|
Und
|
die
|
Sonne
|
blickt
|
durch
|
der
|
Zweige
|
Grün
|
Und
|
malt
|
auf
|
den
|
glänzenden
|
Matten
|
Der
|
Bäume
|
gigantische
|
Schatten;
|
Und
|
zwei
|
Wanderer
|
sieht
|
er
|
die
|
Straße
|
ziehn,
|
Will
|
eilenden
|
Laufes
|
vorüberfliehn,
|
Da
|
hört
|
er
|
die
|
Worte
|
sie
|
sagen:
|
"Jetzt
|
wird
|
er
|
ans
|
Kreuz
|
geschlagen."
|
Und
|
die
|
Angst
|
beflügelt
|
|
Antwort
|
den
|
eilenden
|
Fuß,
|
Ihn
|
jagen
|
der
|
Sorge
|
Qualen,
|
Da
|
schimmern
|
in
|
Abendrots
|
Strahlen
|
Von
|
ferne
|
die
|
Zinnen
|
von
|
Syrakus,
|
Und
|
entgegen
|
kommt
|
ihm
|
Philostratus,
|
Des
|
Hauses
|
redlicher
|
Hüter,
|
Der
|
erkennet
|
entsetzt
|
den
|
Gebieter:
|
"Zurück!
|
du
|
rettest
|
den
|
Freund
|
nicht
|
mehr,
|
So
|
rette
|
das
|
eigene
|
Leben!
|
Den
|
Tod
|
erleidet
|
er
|
eben.
|
Von
|
Stunde
|
zu
|
Stunde
|
gewartet'
|
er
|
Mit
|
hoffender
|
Seele
|
der
|
Wiederkehr,
|
Ihm
|
konnte
|
den
|
mutigen
|
|
Antwort
|
Glauben
|
Der
|
Hohn
|
des
|
Tyrannen
|
nicht
|
rauben."
|
"Und
|
ist
|
es
|
zu
|
spät,
|
und
|
kann
|
ich
|
ihm
|
nicht
|
Ein
|
Retter
|
willkommen
|
erscheinen,
|
So
|
soll
|
mich
|
der
|
Tod
|
ihm
|
vereinen.
|
Des
|
rühme
|
der
|
blutge
|
Tyrann
|
sich
|
nicht,
|
dass
|
der
|
Freund
|
dem
|
Freunde
|
gebrochen
|
die
|
Pflicht,
|
Er
|
schlachte
|
der
|
Opfer
|
zweie
|
Und
|
glaube
|
an
|
Liebe
|
und
|
Treue."
|
Und
|
die
|
Sonne
|
geht
|
unter,
|
da
|
steht
|
er
|
am
|
Tor
|
|
Antwort
|
Und
|
sieht
|
das
|
Kreuz
|
schon
|
erhöhet,
|
Das
|
die
|
Menge
|
gaffend
|
umstehet,
|
An
|
dem
|
Seile
|
schon
|
zieht
|
man
|
den
|
Freund
|
empor,
|
Da
|
zertrennt
|
er
|
gewaltig
|
den
|
dichten
|
Chor:
|
"Mich,
|
Henker",
|
ruft
|
er,
|
"erwürget!
|
Da
|
bin
|
ich,
|
für
|
den
|
er
|
gebürget!"
|
Und
|
Erstaunen
|
ergreifet
|
das
|
Volk
|
umher,
|
In
|
den
|
Armen
|
liegen
|
sich
|
beide
|
Und
|
weinen
|
vor
|
Schmerzen
|
und
|
Freude.
|
Da
|
sieht
|
man
|
kein
|
Auge
|
tränenleer,
|
Und
|
|
Antwort
|
zum
|
Könige
|
bringt
|
man
|
die
|
Wundermär,
|
Der
|
fühlt
|
ein
|
menschliches
|
Rühren,
|
Lässt
|
schnell
|
vor
|
den
|
Thron
|
sie
|
führen.
|
Und
|
blicket
|
sie
|
lange
|
verwundert
|
an.
|
Drauf
|
spricht
|
er:
|
"Es
|
ist
|
euch
|
gelungen,
|
Ihr
|
habt
|
das
|
Herz
|
mir
|
bezwungen,
|
Und
|
die
|
Treue,
|
sie
|
ist
|
doch
|
kein
|
leerer
|
Wahn,
|
So
|
nehmet
|
auch
|
mich
|
zum
|
Genossen
|
an
|
Ich
|
sei,
|
gewährt
|
mir
|
die
|
Bitte,
|
In
|
eurem
|
Bunde
|
der
|
Dritte."
|
|