Antwort
|
Zu
|
Dionys,
|
dem
|
Tyrannen,
|
schlich
|
Damon,
|
den
|
Dolch
|
im
|
Gewande;
|
Ihn
|
schlugen
|
die
|
Häscher
|
in
|
Bande.
|
"Was
|
wolltest
|
du
|
mit
|
dem
|
Dolche,
|
sprich!"
|
Entgegnet
|
ihm
|
finster
|
der
|
Wüterich.
|
"Die
|
Stadt
|
vom
|
Tyrannen
|
befreien!"
|
"Das
|
sollst
|
du
|
am
|
Kreuze
|
bereuen."
|
"Ich
|
bin",
|
spricht
|
jener,
|
"zu
|
sterben
|
bereit
|
Und
|
bitte
|
nicht
|
um
|
mein
|
Leben,
|
Doch
|
willst
|
du
|
Gnade
|
mir
|
geben,
|
Ich
|
flehe
|
dich
|
um
|
drei
|
Tage
|
Zeit,
|
Bis
|
ich
|
die
|
Schwester
|
dem
|
Gatten
|
gefreit,
|
Ich
|
lasse
|
den
|
Freund
|
dir
|
als
|
Bürgen,
|
Ihn
|
magst
|
|
Antwort
|
du,
|
entrinn
|
ich,
|
erwürgen."
|
Da
|
lächelt
|
der
|
König
|
mit
|
arger
|
List
|
Und
|
spricht
|
nach
|
kurzem
|
Bedenken:
|
"Drei
|
Tage
|
will
|
ich
|
dir
|
schenken.
|
Doch
|
wisse!
|
Wenn
|
sie
|
verstrichen,
|
die
|
Frist,
|
Eh'
|
du
|
zurück
|
mir
|
gegeben
|
bist,
|
So
|
muss
|
er
|
statt
|
deiner
|
erblassen,
|
Doch
|
dir
|
ist
|
die
|
Strafe
|
erlassen."
|
Und
|
er
|
kommt
|
zum
|
Freunde:
|
"Der
|
König
|
gebeut,
|
Dass
|
ich
|
am
|
Kreuz
|
mit
|
dem
|
Leben
|
Bezahle
|
das
|
frevelnde
|
Streben,
|
Doch
|
will
|
er
|
mir
|
gönnen
|
drei
|
Tage
|
Zeit,
|
Bis
|
ich
|
die
|
Schwester
|
dem
|
Gatten
|
|
Antwort
|
gefreit,
|
So
|
bleib
|
du
|
dem
|
König
|
zum
|
Pfande,
|
Bis
|
ich
|
komme,
|
zu
|
lösen
|
die
|
Bande."
|
Und
|
schweigend
|
umarmt
|
ihn
|
der
|
treue
|
Freund
|
Und
|
liefert
|
sich
|
aus
|
dem
|
Tyrannen,
|
der
|
andere
|
ziehet
|
von
|
dannen.
|
Und
|
ehe
|
das
|
dritte
|
Morgenrot
|
scheint,
|
Hat
|
er
|
schnell
|
mit
|
dem
|
Gatten
|
die
|
Schwester
|
vereint,
|
Eilt
|
heim
|
mit
|
sorgender
|
Seele,
|
Damit
|
er
|
die
|
Frist
|
nicht
|
verfehle.
|
Da
|
gießt
|
unendlicher
|
Regen
|
herab,
|
Von
|
den
|
Bergen
|
stürzen
|
die
|
Quellen,
|
Und
|
die
|
Bäche,
|
die
|
Ströme
|
schwellen,
|
Und
|
er
|
kommt
|
ans
|
|
Antwort
|
Ufer
|
mit
|
wanderndem
|
Stab,
|
Da
|
reißet
|
die
|
Brücke
|
der
|
Strudel
|
hinab,
|
Und
|
donnernd
|
sprengen
|
die
|
Wogen
|
Des
|
Gewölbes
|
krachenden
|
Bogen.
|
Und
|
trostlos
|
irrt
|
er
|
an
|
Ufers
|
Rand,
|
Wie
|
weit
|
er
|
auch
|
spähet
|
und
|
blicket
|
Und
|
die
|
Stimme,
|
die
|
rufende,
|
schicket,
|
Da
|
stößet
|
kein
|
Nachen
|
vom
|
sichern
|
Strand,
|
Der
|
ihn
|
setze
|
an
|
das
|
gewünschte
|
Land,
|
Kein
|
Schiffer
|
lenket
|
die
|
Fähre,
|
Und
|
der
|
wilde
|
Strom
|
wird
|
zum
|
Meere.
|
Da
|
sinkt
|
er
|
ans
|
Ufer
|
und
|
weint
|
und
|
fleht,
|
Die
|
Hände
|
zum
|
Zeus
|
erhoben:
|
|
Antwort
|
"O
|
hemme
|
des
|
Stromes
|
Toben!
|
Es
|
eilen
|
die
|
Stunden,
|
im
|
Mittag
|
steht
|
Die
|
Sonne,
|
und
|
wenn
|
sie
|
niedergeht
|
Und
|
ich
|
kann
|
die
|
Stadt
|
nicht
|
erreichen,
|
So
|
muss
|
der
|
Freund
|
mir
|
erbleichen."
|
Doch
|
wachsend
|
erneut
|
sich
|
des
|
Stromes
|
Wut,
|
Und
|
Welle
|
auf
|
Welle
|
zerrinnet,
|
Und
|
Stunde
|
an
|
Stunde
|
entrinnet.
|
Da
|
treibt
|
ihn
|
die
|
Angst,
|
da
|
fasst
|
er
|
sich
|
Mut
|
Und
|
wirft
|
sich
|
hinein
|
in
|
die
|
brausende
|
Flut
|
Und
|
teilt
|
mit
|
gewaltigen
|
Armen
|
Den
|
Strom,
|
und
|
ein
|
Gott
|
hat
|
Erbarmen.
|
Und
|
gewinnt
|
|
Antwort
|
das
|
Ufer
|
und
|
eilet
|
fort
|
Und
|
danket
|
dem
|
rettenden
|
Gotte,
|
Da
|
stürzet
|
die
|
raubende
|
Rotte
|
Hervor
|
aus
|
des
|
Waldes
|
nächtlichem
|
Ort,
|
Den
|
Pfad
|
ihm
|
sperrend,
|
und
|
schnaubet
|
Mord
|
Und
|
hemmet
|
des
|
Wanderers
|
Eile
|
Mit
|
drohend
|
geschwungener
|
Keule.
|
"Was
|
wollt
|
ihr?",
|
ruft
|
er
|
für
|
Schrecken
|
bleich,
|
"Ich
|
habe
|
nichts
|
als
|
mein
|
Leben,
|
Das
|
muss
|
ich
|
dem
|
Könige
|
geben!"
|
Und
|
entreißt
|
die
|
Keule
|
dem
|
nächsten
|
gleich:
|
"Um
|
des
|
Freundes
|
willen
|
erbarmet
|
euch!"
|
Und
|
drei
|
mit
|
gewaltigen
|
Streichen
|
Erlegt
|
er,
|
die
|
andern
|
entweichen.
|
|