Hat
|
der
|
alte
|
Hexenmeister
|
|
|
|
sich
|
doch
|
einmal
|
wegbegeben!
|
|
|
|
Und
|
nun
|
sollen
|
seine
|
Geister
|
|
|
auch
|
nach
|
meinem
|
Willen
|
leben.
|
|
|
Seine
|
Wort
|
und
|
Werke
|
|
|
|
merkt
|
ich
|
und
|
den
|
Brauch,
|
|
|
und
|
mit
|
Geistesstärke
|
|
|
|
|
tu
|
ich
|
Wunder
|
auch.
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Walle!
|
walle
|
|
|
|
|
|
Manche
|
Strecke,
|
|
|
|
|
|
daß,
|
zum
|
Zwecke,
|
|
|
|
|
Wasser
|
fließe
|
|
|
|
|
|
und
|
mit
|
reichem,
|
vollem
|
Schwalle
|
|
|
zu
|
dem
|
Bade
|
sich
|
ergieße.
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Und
|
nun
|
komm,
|
du
|
alter
|
Besen!
|
|
Nimm
|
die
|
schlechten
|
Lumpenhüllen
|
|
|
|
bist
|
schon
|
lange
|
Knecht
|
gewesen:
|
|
|
nun
|
erfülle
|
meinen
|
Willen!
|
|
|
|
Auf
|
zwei
|
Beinen
|
stehe,
|
|
|
|
oben
|
sei
|
ein
|
Kopf,
|
|
|
|
eile
|
nun
|
und
|
gehe
|
|
|
|
mit
|
dem
|
Wassertopf!
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Walle!
|
walle
|
|
|
|
|
|
manche
|
Strecke,
|
|
|
|
|
|
daß,
|
zum
|
Zwecke,
|
|
|
|
|
Wasser
|
fließe
|
|
|
|
|
|
und
|
mit
|
reichem,
|
vollem
|
Schwalle
|
|
|
zu
|
dem
|
Bade
|
sich
|
ergieße.
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Seht,
|
er
|
läuft
|
zum
|
Ufer
|
nieder,
|
|
Wahrlich!
|
ist
|
schon
|
an
|
dem
|
Flusse,
|
|
und
|
mit
|
Blitzesschnelle
|
wieder
|
|
|
|
ist
|
er
|
hier
|
mit
|
raschem
|
Gusse.
|
|
Schon
|
zum
|
zweiten
|
Male!
|
|
|
|
Wie
|
das
|
Becken
|
schwillt!
|
|
|
|
Wie
|
sich
|
jede
|
Schale
|
|
|
|
voll
|
mit
|
Wasser
|
füllt!
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Stehe!
|
stehe!
|
|
|
|
|
|
denn
|
wir
|
haben
|
|
|
|
|
deiner
|
Gaben
|
|
|
|
|
|
vollgemessen!
|
|
|
|
|
|
|
Ach,
|
ich
|
merk
|
es!
|
Wehe!
|
wehe!
|
|
Hab
|
ich
|
doch
|
das
|
Wort
|
vergessen!
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Ach,
|
das
|
Wort,
|
worauf
|
am
|
Ende
|
|
er
|
das
|
wird,
|
was
|
er
|
gewesen.
|
|
Ach,
|
er
|
läuft
|
und
|
bringt
|
behende!
|
|
Wärst
|
du
|
doch
|
der
|
alte
|
Besen!
|
|
Immer
|
neue
|
Güsse
|
|
|
|
|
bringt
|
er
|
schnell
|
herein,
|
|
|
|
Ach!
|
und
|
hundert
|
Flüsse
|
|
|
|
stürzen
|
auf
|
mich
|
ein.
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Nein,
|
nicht
|
länger
|
|
|
|
|
kann
|
ichs
|
lassen
|
|
|
|
|
will
|
ihn
|
fassen.
|
|
|
|
|
Das
|
ist
|
Tücke!
|
|
|
|
|
Ach!
|
nun
|
wird
|
mir
|
immer
|
bänger!
|
|
Welche
|
Miene!
|
welche
|
Blicke!
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
O,
|
du
|
Ausgeburt
|
der
|
Hölle!
|
|
|
Soll
|
das
|
ganze
|
Haus
|
ersaufen?
|
|
|
Seh
|
ich
|
über
|
jede
|
Schwelle
|
|
|
doch
|
schon
|
Wasserströme
|
laufen.
|
|
|
|
Ein
|
verruchter
|
Besen,
|
|
|
|
|
der
|
nicht
|
hören
|
will!
|
|
|
|
Stock,
|
der
|
du
|
gewesen,
|
|
|
|
steh
|
doch
|
wieder
|
still!
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Willst's
|
am
|
Ende
|
|
|
|
|
gar
|
nicht
|
lassen?
|
|
|
|
|
Will
|
dich
|
fassen,
|
|
|
|
|
will
|
dich
|
halten
|
|
|
|
|
und
|
das
|
alte
|
Holz
|
behende
|
|
|
mit
|
dem
|
scharfen
|
Beile
|
spalten.
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Seht
|
da
|
kommt
|
er
|
schleppend
|
wieder!
|
|
Wie
|
ich
|
mich
|
nur
|
auf
|
dich
|
werfe,
|
gleich,
|
o
|
Kobold,
|
liegst
|
du
|
nieder
|
|
krachend
|
trifft
|
die
|
glatte
|
Schärfe.
|
|
|
Wahrlich,
|
brav
|
getroffen!
|
|
|
|
|
Seht,
|
er
|
ist
|
entzwei!
|
|
|
|
Und
|
nun
|
kann
|
ich
|
hoffen,
|
|
|
und
|
ich
|
atme
|
frei!
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Wehe!
|
wehe!
|
|
|
|
|
|
Beide
|
Teile
|
|
|
|
|
|
stehn
|
in
|
Eile
|
|
|
|
|
schon
|
als
|
Knechte
|
|
|
|
|
völlig
|
fertig
|
in
|
die
|
Höhe!
|
|
|
Helft
|
mir,
|
ach!
|
ihr
|
hohen
|
Mächte!
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Und
|
sie
|
laufen!
|
Naß
|
und
|
nässer
|
|
wirds
|
im
|
Saal
|
und
|
auf
|
den
|
Stufen.
|
Welch
|
entsetzliches
|
Gewässer!
|
|
|
|
|
Herr
|
und
|
Meister!
|
hör
|
mich
|
rufen!
|
|
Ach,
|
da
|
kommt
|
der
|
Meister!
|
|
|
Herr,
|
die
|
Not
|
ist
|
groß!
|
|
|
Die
|
ich
|
rief,
|
die
|
Geister
|
|
|
werd
|
ich
|
nun
|
nicht
|
los.
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
"In
|
die
|
Ecke,
|
|
|
|
|
Besen,
|
Besen!
|
|
|
|
|
|
Seids
|
gewesen.
|
|
|
|
|
|
Denn
|
als
|
Geister
|
|
|
|
|
ruft
|
euch
|
nur
|
zu
|
seinem
|
Zwecke,
|
|
erst
|
hervor
|
der
|
alte
|
Meister."
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
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|
|
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