Der
|
Kapitän
|
steht
|
an
|
der
|
Spiere,
|
|
|
Das
|
Fernrohr
|
in
|
gebräunter
|
Hand,
|
|
|
|
Dem
|
schwarzgelockten
|
Passagiere
|
|
|
|
|
|
Hat
|
er
|
den
|
Rücken
|
zugewandt.
|
|
|
|
Nach
|
einem
|
Wolkenstreif
|
in
|
Sinnen
|
|
|
|
Die
|
beiden
|
wie
|
zwei
|
Pfeiler
|
sehn,
|
|
|
Der
|
Fremde
|
spricht:
|
"was
|
braut
|
da
|
drinnen?"
|
|
"Der
|
Teufel,"
|
brummt
|
der
|
Kapitän.
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Da
|
hebt
|
von
|
morschen
|
Balkens
|
Trümmer
|
|
|
Ein
|
Kranker
|
seine
|
feuchte
|
Stirn,
|
|
|
|
Des
|
Aethers
|
Blau,
|
der
|
See
|
Geflimmer,
|
|
|
Ach,
|
Alles
|
quält
|
sein
|
fiebernd
|
Hirn!
|
|
|
Er
|
läßt
|
die
|
Blicke,
|
schwer
|
und
|
düster,
|
|
Entlängs
|
dem
|
harten
|
Pfühle
|
gehn,
|
|
|
|
Die
|
eingegrabnen
|
Worte
|
liest
|
er:
|
|
|
|
"Batavia.
|
Fünfhundert
|
Zehn."
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Die
|
Wolke
|
steigt,
|
zur
|
Mittagsstunde
|
|
|
|
Das
|
Schiff
|
ächzt
|
auf
|
der
|
Wellen
|
Höhn,
|
|
Gezisch,
|
Geheul
|
aus
|
wüstem
|
Grunde,
|
|
|
|
Die
|
Bohlen
|
weichen
|
mit
|
Gestöhn.
|
|
|
|
"Jesus,
|
Marie!
|
wir
|
sind
|
verloren!"
|
|
|
|
Vom
|
Mast
|
geschleudert
|
der
|
Matros',
|
|
|
|
Ein
|
dumpfer
|
Krach
|
in
|
Aller
|
Ohren,
|
|
|
Und
|
langsam
|
löst
|
der
|
Bau
|
sich
|
los.
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Noch
|
liegt
|
der
|
Kranke
|
am
|
Verdecke,
|
|
|
Um
|
seinen
|
Balken
|
fest
|
geklemmt,
|
|
|
|
Da
|
kömmt
|
die
|
Fluth,
|
und
|
eine
|
Strecke
|
|
Wird
|
er
|
in's
|
wüste
|
Meer
|
geschwemmt.
|
|
|
Was
|
nicht
|
geläng'
|
der
|
Kräfte
|
Sporne,
|
|
|
Das
|
leistet
|
ihm
|
der
|
starre
|
Krampf,
|
|
|
Und
|
wie
|
ein
|
Narwal
|
mit
|
dem
|
Horne
|
|
Schießt
|
fort
|
er
|
durch
|
der
|
Wellen
|
Dampf
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Wie
|
lange
|
so?
|
er
|
weiß
|
es
|
nimmer,
|
|
Dann
|
trifft
|
ein
|
Stral
|
des
|
Auges
|
Ball,
|
|
Und
|
langsam
|
schwimmt
|
er
|
mit
|
der
|
Trümmer
|
|
Auf
|
ödem
|
glitzerndem
|
Kristall.
|
|
|
|
|
Das
|
Schiff!
|
die
|
Mannschaft!
|
sie
|
versanken.
|
|
|
Doch
|
nein,
|
dort
|
auf
|
der
|
Wasserbahn,
|
|
|
Dort
|
sieht
|
den
|
Passagier
|
er
|
schwanken
|
|
|
In
|
einer
|
Kiste
|
morschem
|
Kahn.
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Armselge
|
Lade!
|
sie
|
wird
|
sinken,
|
|
|
|
Er
|
strengt
|
die
|
heisre
|
Stimme
|
an:
|
|
|
"Nur
|
grade!
|
Freund,
|
du
|
drückst
|
zur
|
Linken!"
|
|
Und
|
immer
|
näher
|
schwankt's
|
heran,
|
|
|
|
Und
|
immer
|
näher
|
treibt
|
die
|
Trümmer,
|
|
|
Wie
|
ein
|
verwehtes
|
Möwennest
|
|
|
|
|
"Courage!"
|
ruft
|
der
|
kranke
|
Schwimmer,
|
|
|
|
"Mich
|
dünkt
|
ich
|
sehe
|
Land
|
im
|
West!"
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Nun
|
rühren
|
sich
|
der
|
Fähren
|
Ende,
|
|
|
Er
|
sieht
|
des
|
fremden
|
Auges
|
Blitz,
|
|
|
Da
|
plötzlich
|
fühlt
|
er
|
starke
|
Hände,
|
|
|
Fühlt
|
wüthend
|
sich
|
gezerrt
|
vom
|
Sitz.
|
|
|
"Barmherzigkeit!
|
ich
|
kann
|
nicht
|
kämpfen."
|
|
|
|
Er
|
klammert
|
dort,
|
er
|
klemmt
|
sich
|
hier
|
|
Ein
|
heisrer
|
Schrei,
|
den
|
Wellen
|
dämpfen,
|
|
|
Am
|
Balken
|
schwimmt
|
der
|
Passagier.
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Dann
|
hat
|
er
|
kräftig
|
sich
|
geschwungen,
|
|
|
Und
|
schaukelt
|
durch
|
das
|
öde
|
Blau,
|
|
|
Er
|
sieht
|
das
|
Land
|
wie
|
Dämmerungen
|
|
|
Enttauchen
|
und
|
zergehn
|
in
|
Grau.
|
|
|
|
Noch
|
lange
|
ist
|
er
|
so
|
geschwommen,
|
|
|
Umflattert
|
von
|
der
|
Möve
|
Schrei,
|
|
|
|
Dann
|
hat
|
ein
|
Schiff
|
ihn
|
aufgenommen,
|
|
|
Viktoria!
|
nun
|
ist
|
er
|
frei!
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Drei
|
kurze
|
Monde
|
sind
|
verronnen,
|
|
|
|
Und
|
die
|
Fregatte
|
liegt
|
am
|
Strand,
|
|
|
Wo
|
Mittags
|
sich
|
die
|
Robben
|
sonnen,
|
|
|
Und
|
Bursche
|
klettern
|
über'n
|
Rand,
|
|
|
|
Den
|
Mädchen
|
ist's
|
ein
|
Abentheuer
|
|
|
|
Es
|
zu
|
erschaun
|
vom
|
fernen
|
Riff,
|
|
|
Denn
|
noch
|
zerstört
|
ist
|
nicht
|
geheuer
|
|
|
Das
|
gräuliche
|
Corsarenschiff.
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Und
|
vor
|
der
|
Stadt
|
da
|
ist
|
ein
|
Waten,
|
Ein
|
Wühlen
|
durch
|
das
|
Kiesgeschrill,
|
|
|
|
Da
|
die
|
verrufenen
|
Piraten
|
|
|
|
|
Ein
|
Jeder
|
sterben
|
sehen
|
will.
|
|
|
|
Aus
|
Strandgebälken,
|
morsch,
|
zertrümmert,
|
|
|
|
|
Hat
|
man
|
den
|
Galgen,
|
dicht
|
am
|
Meer,
|
|
In
|
wüster
|
Eile
|
aufgezimmert.
|
|
|
|
|
Dort
|
dräut
|
er
|
von
|
der
|
Düne
|
her!
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Welch
|
ein
|
Getümmel
|
an
|
den
|
Schranken!
|
|
|
"Da
|
kommt
|
der
|
Frei
|
der
|
Hessel
|
jetzt
|
|
Da
|
bringen
|
sie
|
den
|
schwarzen
|
Franken,
|
|
|
Der
|
hat
|
geläugnet
|
bis
|
zuletzt."
|
|
|
|
"Schiffbrüchig
|
sey
|
er
|
hergeschwommen,"
|
|
|
|
|
Höhnt
|
eine
|
Alte:
|
"Ei,
|
wie
|
kühn!
|
|
|
Doch
|
Keiner
|
sprach
|
zu
|
seinem
|
Frommen,
|
|
|
Die
|
ganze
|
Bande
|
gegen
|
ihn."
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Der
|
Passagier,
|
am
|
Galgen
|
stehend,
|
|
|
|
Hohläugig,
|
mit
|
zerbrochnem
|
Muth,
|
|
|
|
|
Zu
|
jedem
|
Räuber
|
flüstert
|
flehend:
|
|
|
|
"Was
|
tat
|
dir
|
mein
|
unschuldig
|
Bluth?
|
|
|
Barmherzigkeit!
|
so
|
muß
|
ich
|
sterben
|
|
|
|
Durch
|
des
|
Gesindels
|
Lügenwort,
|
|
|
|
|
O,
|
mög'
|
die
|
Seele
|
euch
|
verderben!"
|
|
|
Da
|
zieht
|
ihn
|
schon
|
der
|
Scherge
|
fort.
|
|
|
|
|
|
|
|
|
|
Er
|
sieht
|
die
|
Menge
|
wogend
|
spalten
|
|
|
Er
|
hört
|
das
|
Summen
|
im
|
Gewühl
|
|
|
Nun
|
weiß
|
er,
|
daß
|
des
|
Himmels
|
Walten
|
|
Nur
|
seiner
|
Pfaffen
|
Gaukelspiel!
|
|
|
|
|
Und
|
als
|
er
|
in
|
des
|
Hohnes
|
Stolze
|
|
Will
|
starren
|
nach
|
den
|
Aetherhöhn,
|
|
|
|
Da
|
liest
|
er
|
an
|
des
|
Galgens
|
Holze:
|
|
"B a t a v i a.
|
F ü n f h u n d e r t
|
Z e h n."
|
|
|
|
|
|
|